भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी चुनावी समर में वैसे तो दलितोँ के विकस कि बात कर रहे हैं लेकिन ह़की़कत कुछ और ही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का दलितों के प्रति झूठा प्रेम समूह नवसृजन ने आरटीआई के जरिए सामने लाया है। नरेंद्र मोदी एसटी और पिछडे समुदाय के विकास के लिए गठित समिति के अध्यक्ष हैं और उन्होंने पिछले 10 सालों में सिर्फ दो बार ही इसकी अध्यक्षता की है। आरटीआई से पता चला है कि मोदी सरकार ने पिछले एक दशक में दलितों और समाज में आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछडे वर्गो के विकास के लिए मिले लगभग 3,689 करोड़ के फंड का इस्तेमाल ही नहीं किया है।
दलित समूह नवसृजन के मुताबिक मोदी जिस समिति के अध्यक्ष हैं वह समिति पिछडे वर्गो के विकास के लिए आवंटित होने वाले फंड पर नजर रखती है। उन्होंने समीक्षा बैठक अगस्त 2003 और जून 2004 में की थी। आरटीआई में बताया गया है कि गुजरात सरकार को फंड जारी करने में देरी करने से 2007 से 2014 के बीच निर्घारित फंड से कम राशि खर्च हुई। 2007 में 1097 करोड़ रूपए खर्च किए जाने थे लेकिन 554.16 करोड़ ही खर्च हुए। 2013 में 4095 करोड़ राशि खर्च की जानी थी जिसमें से केवल 2850 करोड़ ही खर्च हुए।
ह्यूमनराईट्स’ द्वारा तैयार की रपट ’अन्डरस्टेडिंग अनटचेबिलिटी’ कहती है कि गुजरात में ९० प्रकार की अस्पृश्यताएं व्यवहार में हैं। दलितों को सार्वजनिक स्त्रोतों से पानी नहीं लेने दिया जाता, वे मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते और आज भी गुजरात में १२ हजार से अधिक लोग सिर पर मैला ढोने के काम में लगे हुये हैं। वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ भी नहीं सकते क्योंकि पुलिस और प्रशासन उनकी मदद नहीं करता। विरोध करने पर उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया जाता है। राजनैतिक-सामाजिक स्तर पर तो दलित भेदभाव के शिकार हैं ही, पुलिस भी उन पर अत्याचार करने में पीछे नहीं है। गुजरात में ऐसी कई घटनाएं हुईं है जिनसे ऐसे लगता है कि पुलिस जानबूझकर अन्याय के खिलाफ दलितों के संघर्ष को कुचलना चाहती है।
‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज’ के एक रपट, गुजरात सरकार के इस दावे की पोल खोलती है कि राज्य में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त हो गयी है। रपट कहती है, “वाईब्रेंट गुजरात में 12,000 से अधिक लोग सिर पर मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं। इनमें से 10 प्रतिशत को कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराये जाते हैं और वे अपने हाथों से मैला साफ़ करने पर मजबूर हैं”। रपट के अनुसार, 2456 परिवारों के 12,506 व्यक्ति इस घिनौने काम को कर रहे हैं। उनमें से ५० प्रतिशत, खुले में पड़ा मैला उठाते हैं। तथ्य यह है कि यह अध्ययन केवल 10,000 से अधिक आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में किया गया था। जाहिर है कि रपट में उन हजारों छोटे-बड़े गाँवों और कस्बों के हालात का जिक्र नहीं है जहाँ जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता और सिर पर मैला ढोने की प्रथा प्रचलित हैं।
दलित नेता के साथ खड़े रहकर आने वाले दशक को दलितों का दशक कहकर पब्लिसिटी लेनेवाले मोदी के राज्य में ही दलितों को करोडो के फंड के बावजूद पूरी सहाय नहीं मिल रही है। मोदी हर जगह सबके विकास की बाते करते है तो फिर इन्ही के राज्य में दलितों के साथ अन्याय क्यों हो रहा है ? मोदी जी अपने आप को दलित बोलते है और ख़ुद ही दलितों से दुर क्यों रहते है?