Wednesday, April 2, 2014

'ख़ून की चाय'




भाजपा ने अपने पीएम पद के उम्‍मीदवार नरेंद्र मोदी की 'चाय वाले' की छवि को भुनाने के लिए 'चाय की चौपाल' अभियान की शुरुआत की। इस अभियान की शुरुआत करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा कि बुरा शासन डायबिटीज की तरह है, जो अगर एक बार हो जाए तो एक साथ कई परेशानियों को ले आता है। उन्‍होंने कहा कि उनका मकसद चौपाल के जरिए लोगों से सुशासन पर बात करने और सुझाव लेने से है। 

यह सोचना कठिन नहीं है कि गुजरात में “विकास” हुआ है तो किसकी हड्डियों को चूसकर। और मोदी चाहे जितना चिल्ल-पों मचा ले जनता से यह सच्चाई छुपी नहीं है। जब लोकरंजकता की लहर चलती है तो तार्किकता का कोई पूछनहार नहीं होता। आजकल मोदी और भाजपाई इस बात को खूब भुना रहे हैं कि मोदी कभी चाय बेचते थे। वे कांग्रेस और मणिशंकर अय्यर पर हमले कर रहे हैं कि उन्होंने मोदी की पृष्ठभूमि की खिल्ली उड़ाई। कुछ सेक्युलर और प्रगतिशील लोग भी कहते मिल रहे हैं कि मोदी की चाय बेचने की पृष्ठभूमि का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए।



मेरा ख़्याल कुछ जुदा है। यदि कोई चाय बेचने की पृष्ठभूमि को भुनाता है तो उसका मज़ाक जरूर उड़ाया जाना चाहिए। चाय बेचने वाले के प्रधानमंत्री बन जाने से देश में चाय बेचने वालों और तमाम उन जैसों का भला होगा या नहीं, यह इस बात से तय होगा कि राज्यसत्ता का चरित्र क्या है, चाय  बेचने वाले की पार्टी की नीतियाँ क्या हैं! जैसे तमाम पिछड़ी चेतना के मजदूरों को यदि सत्ता सौंप दी जाये, तो समाजवाद नहीं आ जायेगा! समाजवाद वह हरावल पार्टी ही ला सकती है जो क्रान्ति के विज्ञान को, समाजवाद की अर्थनीति और राजनीति को समझती हो!
चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।
ज़रूरी नहीं कि कोई चाय वाला होने के नाते जनता का भला ही सोचे! उनकी मानसिकता छोटे मालिक की भी हो सकती है। यह छोटा मालिक बड़ा बेरहम और गैर जनतांत्रिक होता है। हर छोटा व्यवसायी बड़ा होटल मालिक बनने का ख़्वाब पालता है। लाल किले तक नहीं पहुँच पाता तो मंच पर ही लाल किला बना देता है। चायवाले से इतनी हमदर्दी भी ठीक नहीं कि उससे इतिहास-भूगोल सीखना शुरू कर दिया जाये। यह कैसे मान लिया जाये कि कोई आदमी महज़ चाय बेचने के चलते देश का प्रधानमंत्री बनने योग्य है! हर चायवाला सभी चायवालों के हितों का प्रतिनिधि हो, यह भी जरूरी नहीं। एक रँगाई-पुताई करने वाले (हिटलर) ने और एक लुहार के बेटे (मुसोलिनी) ने अभी 70-75 वर्षों पहले ही अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में गज़ब की तबाही और कत्लो-गारत का कहर बरपा किया था। यह आर्यावर्त का चायवाला उतनी बड़ी औक़ात तो नहीं रखता, पर 2002 में पूरे गुजरात में इसने ख़ूनी चाय के जो हण्डे चढ़वाये थे, उनको याद किया जाये और आज के मुज़फ्ऱफ़रनगर को देखा जाये तो इतना साफ हो जाता है कि यह पूरे हिन्दुस्तान को ख़ून की चाय पिला देना चाहता है। ख़ूनी चाय की तासीर से राष्ट्रीय गौरव की भावना पैदा होती है और देश “गौरवशाली अतीत” की ओर तेज़ी से भागता हुआ अनहोनी रफ्तार से तरक्‍़क़ी कर जाता है, ऐसा इस चायवाले का दावा है। क्या हम आनेवाला कल एक ऐसा नेता के हाथ में देंगे जो अपनी ही मनमानी चलाता रहे?


No comments:

Post a Comment